आज के आर्टिकल में पृथ्वीराज चौहान (Prithviraj Chauhan) के बारे में पढ़ेंगे। जिसके अन्तर्गत हम पृथ्वीराज चौहान का जीवन परिचय (Prithviraj Chauhan Biography in Hindi), पृथ्वीराज चौहान का इतिहास (Prithviraj Chauhan History in Hindi), पृथ्वीराज चौहान की विजयों (Prithviraj Chauhan ki Vijay) के बारे में जानेंगे।
पृथ्वीराज चौहान – Prithviraj Chauhan History in Hindi
पृथ्वीराज चौहान की जीवनी – Prithviraj Chauhan Biography in Hindi | |
जन्म | विक्रम संवत् 1223 (1166 ई.) |
जन्मस्थान | पाटण, गुजरात (भारत) |
मृत्यु | 11 मार्च 1192 |
मृत्युस्थान | अजयमेरु (अजमेर), राजस्थान |
उपनाम | पृृथ्वीराज तृतीय, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा, हिन्दू सम्राट, भारतेश्वर। |
वंश | चौहान वंश |
पिता | सोमेश्वर |
माता | कर्पूरदेवी |
भाई | हरिराज |
बहन | पृथा |
पत्नी | संयोगिता गहङवाल |
पुत्र | गोविन्द चौहान |
विरोधी शासक | मोहम्मद गौरी |
तराइन का प्रथम युद्ध | 1191 ई. |
तराइन का द्वितीय युद्ध | 1192 ई. |
पृथ्वीराज चौहान का जन्म कब हुआ – Prithviraj Chauhan Ka Janm Kab Hua
अजमेर के चौहान वंश का अंतिम प्रतापी शासक पृृथ्वीराज तृृतीय हुआ। पृथ्वीराज तृतीय (Prithviraj Chauhan) का जन्म संवत् 1223 (1166 ई.) में गुजरात की तत्कालीन राजधानी अन्हिलपाटन में हुआ था। इनके पिता का नाम (Prithviraj Chauhan Father Name) सोमेश्वर था, जो उस समय राजस्थान में अजमेर राज्य के राजा थे। इनकी माता कर्पूरी देवी थी। इसने 1177 ई. के लगभग अपने पिता सोमेश्वर की मृत्यु के बाद मात्र 11 वर्ष की आयु में अजमेर का सिंहासन प्राप्त किया।
इसकी माता कर्पूरदेवी ने बङी कुशलता से प्रारंभ में इसके राज्य को संभाला। उसने अपनी माता कर्पूरदेवी के कुशल संरक्षण में अपना शासन प्रारंभ किया। कर्पूरदेवी ने सोमेश्वर के मन्त्रियों तथा अधिकारियों को उनके पुराने पदों पर कायम रखा। इस काल में उसका मुख्यमंत्री कदम्बवास जो अत्यधिक विद्वान, कुशल शासक, स्वामीभक्त व्यक्ति था। पृृथ्वीराज की प्रारंभिक विजय का श्रेय कदम्बवास को जाता है। बाद के ग्रंथों का यह विवरण है कि उसकी हत्या पृथ्वीराज तृृतीय ने की थी। इस समय का दूसरा प्रमुख व्यक्ति ’भुवनैकमल्ल’ था जो ’कल्चुरी’ का था। कर्पूरी देवी ने उसे सेनापति के पद पर नियुक्त किया।
डाॅ. गोपीनाथ का मत है कि महत्त्वाकांक्षी पृथ्वीराज ने 1178 ई. के आस-पास ही शासन के सभी कामकाज अपने हाथ में ले लिये थे।
Prithviraj Chauhan Story in Hindi
पृथ्वीराज चौहान ने अपनी 5 साल की आयु में शिक्षा ’सरस्वती कंठाभरण विद्यापीठ’ अजमेर से प्राप्त की थी। इसके साथ ही पृथ्वीराज ने ’श्रीराम जी’ युद्ध कला और शस्त्रविद्या की शिक्षा भी प्राप्त की थी। पृथ्वीराज चौहान ने एक अद्भुत कला ’शब्दभेदी बाण की कला’ में भी निपुणता प्राप्त की थी। ये इस कला में इतने निपुण थे कि उन्होंने एक दिन बिना हथियार के एक सिंह को मार दिया था। बचपन से ही पृथ्वीराज चौहान बहादुर, साहसी, पराक्रमी, वीर और युद्ध तथा शस्त्र कला में निपुण थे।
इसके अलावा पृथ्वीराज चौहान को संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश आदि छह भाषाओं का ज्ञान था। इसके साथ पृथ्वीराज चौहान को मीमांसा, वेदान्त, गणित, इतिहास, सैन्य विज्ञान, पुराण और चिकित्सा शास्त्र का भी ज्ञान था। पृथ्वीराज चौहान युद्ध-कला की पूरी शिक्षा प्राप्त की थी और आगे चलकर वह एक कुशल योद्धा भी बना था।
भारत की तत्कालीन परिस्थितियाँ – Prithviraj Chauhan ka Itihaas
पृथ्वीराज तृृतीय का प्रारंभिक काल देश की राजनीतिक उथल-पुथल का समय था। भारत के उत्तर-पश्चिम की ओर से मोहम्मद गौरी के नेतृत्व में मुसलमानों का दवाब बढ़ता जा रहा था। भारत में एक सबल केन्द्रीय सत्ता का अभाव था। समुचे देश में विविध हिन्दू राजवंशों तथा कुछ प्रदेशों पर मुस्लिम राजवंशों का शासन था। ये सभी आपसी संघर्ष में डूबे हुए थे। उत्तर-पश्चिम भारत में तीन मुस्लिम राज्य-सिंध, मुल्तान और पंजाब।
उत्तरी भारत में चौहानों के बाद दूसरा शक्तिशाली राज्य ’गहङवाल’ राठौङों का कन्नौज था। वहाँ का शासक जयचन्द चौहानों का प्रतिद्वन्द्वी था। पूर्वी भारत में पालवंश की शक्ति का पतन शुरू हो गया और उनके ही एक सामन्त विजयसेन ने बिहार में एक शक्तिशाली स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था।
गुजरात में चौहानों के परंपरागत शत्रु चालुक्यों का शासन था। बुन्देलखण्ड में चंदेलों का शासन था। दक्षिण भारत भी अनेक राज्यों में विभाजित था। अधिकांश राजपूत शासक हटीले व गर्वशील थे और देश की सुरक्षा के लिए संयुक्त संगठन बनाकर शत्रु से मोर्चा लेने के बाद उनकी बुद्धि सामथ्र्य के बाहर थी। क्योंकि वे अपने में से किसी एक का नेतृत्व स्वीकार करने की मनोदशा में नहीं थे।
1775 ई. के आस-पास मोहम्मद गौरी ने मुल्तान पर आक्रमण कर उसे अधिकृत कर लिया। इसके बाद उसने उच्च के राज्य को भी जीत लिया।
1178 ई. में उसने चौहान की सीमा को पारकर गुजरात पर आक्रमण किया। गौरी के आक्रमण भावी संकट के संकेत दे रहे थे फिर भी भारत के किसी भी शक्तिशाली हिन्दू शासक ने उसके प्रारंभिक आक्रमणों का सही मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं किया। वे या तो उदासीन रहे, अथवा उसके आक्रमणों की उपेक्षा करते रहे और अपने पङौसियों को परास्त करने की कोशश में लगे थे।
पृथ्वीराज चौहान तथा उसके अधिकारियों ने इस समय गोरी के विरुद्ध कोई कदम न उठाकर, गम्भीर भूल की। जिसका घातक परिणाम उन्हें बाद में भुगतना पङा।
वैसे इस समय उन लोगों की नीति चौहान राज्य को अपने पङौसी साम्राज्यवादी शासकों से सुरक्षित रखने की थी। उनकी सुरक्षा को सबसे बङा खतरा दक्षिण-पश्चिम की तरफ से गुजरात के चालुक्यों से था। चौहान-चालुक्य वंश एक लम्बे समय से एक-दूसरे को परास्त कर, अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने के प्रयास में लीन थे।
पूर्व की तरफ से कन्नौज जके गहङवालों से भी खतरा बना हुआ था। कन्नौज का तत्कालीन शासक ’जयचन्द’ बहुत ही महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह समुचे उत्तरी भारत को अपने अधिकार में लेने की भावना रखता था। अपनी उद्देश्य पूर्ति के लिए उसके लिए चौहानों की विस्तारवादी आकांक्षा पर अंकुश लगाना आवश्यक था। दक्षिण-पूर्व में महोबा के चन्देल थे जो चौहान राज्य के क्षेत्रों को हस्तगत करने की ताक में बैठे रहते थे।
पृथ्वीराज तृतीय को अल्पवयस्क, देखकर चौहानों के शत्रु भण्डानकों ने विद्रोह कर दिया था। अतः उनका दमन करना आवश्यक था। परन्तु इससे भी गंभीर समस्या नागार्जुन ने उत्पन्न कर दी थी। वह विग्रहराज चतुर्थ का पुत्र था। उसने गुङगाँव पर अधिकार कर लिया। अब पृथ्वीराज तृतीय से चौहान सिंहासन छीनने की तैयारी में लगा हुआ था।
इस प्रकार सिंहासन पर बैठने ही अल्प वयस्क पृथ्वीराज चौहान को बाह्य अथवा आन्तरिक दोनों शत्रुओं से लोहा लेना था। उसने सर्वप्रथम आन्तरिक शत्रुओं को परास्त कर चौहान राज्यों को एक सूत्र में बांधकर केन्द्रीय शक्ति को सम्बल बनाने का निश्चय किया।
पृथ्वीराज चौहान की सेना – Prithviraj in Hindi
पृथ्वीराज चौहान (Pritviraj Chauhan) के पास बहुत विशाल सेना थी। इस सेना में लगभग 300 हाथी एवं 3 लाख सैनिकों थे तथा उसके पास घोङों की भी विशाल सेना थी। उसकी सेना में घोङों की सेना का बहुत अधिक महत्त्व था। पृथ्वीराज की सेना काफी मजबूत और विशाल थी, इसी सेना के सहारे उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की थी और अपने राज्य का विस्तार किया था। जैसे-जैसे पृथ्वीराज की विजय होती गई, वैसे-वैसे ही उसकी सेना में भी सैनिकों की वृद्धि होती रही थी।
पृथ्वीराज चौहान का इतिहास – Prithviraj Chauhan History in Hindi
(1) नागार्जुन का दमन
नागार्जुन विग्रहराज चतुर्थ का छोटा पुत्र था। विग्रहराज चतुर्थ के बाद उसका पुत्र ’अपरगांगेय’ सिंहासन पर बैठा था। परन्तु कुछ दिनों बाद ही पृथ्वीराज द्वितीय ने उसे मौत के घाट उतारकर सिंहासन हथिया लिया। उस समय नागार्जुन बहुत छोटा था। सोमेश्वर की मृत्यु तक वह वयस्क हो चुका था। अतः उसने पृथ्वीराज तृतीय के उत्तराधिकारी को चुनौती दी और गुङगाँव पर अपना अधिकार जमा लिया। कुछ असन्तुष्ट चौहान सरदार भी उसके पक्ष में चले गये।
जिससे उत्साहित होकर उसने भावी संघर्ष की तैयारियाँ शुरू कर दी। इस पर पृथ्वीराज तृतीय ने अपने मुख्यमंत्री कदम्बवास की देखरेख में एक विशाल सेना के साथ नागार्जुन के केन्द्र गुङगाँव पर आक्रमण किया।
उसकी सेना ने गुङगाँव के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। नागार्जुन तो किसी प्रकार से भाग निकला। परन्तु उसकी माँ, पत्नी, बच्चे तथा परिवार के अन्य सदस्य पकङ लिये गये। नागार्जुन के एक सेनानायक देवभट्ट ने आखिरी समय तक सामना किया। परन्तु वह अपने समस्त सैनिकों के साथ मारा गया।
नागार्जुन के अनेक सैनिकों और कर्मचारियों को बंदी बनाकर अजमेर लाया गया, जहाँ उन्हें मौत के घाट उतारा गया और उनके कटे हुए सिर अजमेर दुर्ग के फटकों पर लटका दिये गये।
ऐसा भावी राजद्रोहियों को चेतावनी के तौर पर किया गया। इसके बाद इतिहास में नागार्जुन का उल्लेख नहीं मिलता।
(2) भण्डानकों का दमन
भण्डानक इस समय किसी क्षेत्र में आबाद थे। यह विवादास्पद है। डाॅ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, ’’यह जाति सतलज की तरफ से आकर गुङगाँव व हिसार जिले के आस-पास बस गयी थी। इसके विपरीत डाॅ. दशरथ शर्मा का मानना है कि यह जाति कन्नौज और हर्षपुर के मध्यवर्ती क्षेत्र में आबाद थी। शायद बयाना भी इसी राज्य में सम्मिलित था।
डाॅ. सत्यप्रकाश के अनुसार यह जाति रेवाङी तहसील के आस-पास बसी हुई थी। विग्रहराज चतुर्थ को इन्होंने परास्त किया था। अब वह पुनः शक्तिशाली हो गये थे। अल्पवयस्क पृथ्वीराज के राजा बनने पर अवसर का लाभ उठाते हुए भण्डानकों ने विद्रोह कर दिया।
जिससे चौहान राज्य की उत्तरी सीमा असुरक्षित हो गयी। नागार्जुन का दमन करने के उपरान्त पृथ्वीराज ने भण्डानकों की तरफ ध्यान दिया। 1182 ई. के आस-पास उसने उस पर जबरदस्त आक्रमण कर दिया। उनकी बस्तियों को उजाङ दिया और सैकङों को मौत के घाट उतार दिया। हजारों भण्डानक उत्तर की ओर भाग गये। शेष ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद के समय में एक शक्ति के रूप में उनका उल्लेख नहीं मिलता।
इन प्रारंभिक विजयों से पृथ्वीराज तृतीय (Prithviraj Chauhan) का उत्तराधिकार सुदृढ़ बन गया। भविष्य में किसी भी चौहान उम्मीदवार ने उसके नेतृत्व को चुनौती देने का साहस नहीं किया। इन विजयों के फलस्वरूप चौहान राज्य की राजनीतिक एकता भी सुदृढ़ हो गयी।
पृथ्वीराज तृतीय की दिग्विजय – Prithviraj Chauhan ki Vijay
जैजाक भुक्ति की विजय
भण्डानकों के विद्रोह का दमन करने के पश्चात् पृथ्वीराज ने चंदेलों पर आक्रमण करने का निश्चय किया। इस समय चंदेलों का राज्य काफी विस्तृत था। जिसमें बुन्देलखण्ड, जैजाकभुक्ति व महोबा आदि सम्मिलित थे। महोबा उसकी राजधानी था। इस समय ’परमार्दी चंदेल’ राज्य पर शासन कर रहा था। उसके दुव्र्यवहार से असन्तुष्ट होकर कई चंदेल राजपूत उसकी सेवा त्यागकर अन्य राजाओं के दरबार में चले गये थे।
ऐसे सरदारों में आल्हा व ऊदल प्रमुख थे। जिन्होंने कन्नौज में आश्रय लिया था। 1182 ई. में पृथ्वीराज ने चंदेलों पर आक्रमण किया। ’पृथ्वीराज रासो’ तथा ’आल्हाखण्ड’ से पता चलता है कि चौहान ने चंदेलों की राजधानी महोबा पर विजय प्राप्त की। जिसमें परमार्दी की ओर से आल्हा व ऊदल व कन्नौज की सेना ने भाग लिया था।
इन गल्पकाव्यों में कितना ऐतिहासिक सत्य है यह निश्चित करना कठिन है। परन्तु इतना निश्चित है कि पृथ्वीराज ने चंदेलों को अवश्य पराजित किया। पराजित परमार्दी को संधि करनी पङी। पृथ्वीराज ने चंदेलों के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाया। केवल कुछ सीमान्त गाँवों को ही अपने राज्य में मिलाया।
प्राप्त शिलालेख व कुछ साहित्यिक रचनाओं से पता चलता है कि कुछ वर्षों के भीतर ही चंदेलों ने अपने खोये हुए राज्यों पर पुनः अधिकार कर लिया। गोपीनाथ शर्मा का मत है कि चौहान इस विजय से स्थायी लाभ नहीं उठा सके।
चंदेलों ने अपनी भूमि को पुनः प्राप्त कर लिया। चंदेलों व गहङवालों का संगठन पृथ्वीराज के लिए ’सैनिक व्यय’ का कारण बन गया। यह विजय आर्थिक दृष्टि से पृथ्वीराज के लिए महंगी पङी। साथ-ही-साथ चंदेल उसके शत्रुओं की नामावली में गिने जाने लगे।
गुजरात पर आक्रमण
गुजरात के चालुक्यों और सपादलक्ष के चौहानों के मध्य लम्बे समय तक संघर्ष चला आ रहा था। पृथ्वीराज के चौहानों के मध्य लम्बे समय तक संघर्ष चला आ रहा था।
पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर के शासनकाल में दोनों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बने रहे। क्योंकि सोमेश्वर का लालन-पालन अपने ननिहाल गुजरात में हुआ था। पृथ्वीराज चोहान के समय में दोनों राजवंशों में पुनः संघर्ष शुरू हो गया।
दोनों के मध्य संघर्ष के कारण की निश्चित जानकारी नहीं मिल पाती। ’पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार संघर्ष का मुख्य कारण आबू नरेश सलख की पुत्री इच्छिनी थी। जिसके साथ पृथ्वीराज और गुजरात नरेश भीमदेव द्वितीय दोनों की विवाह करना चाहते थे। परन्तु अधिकांश इतिहासकार इस प्रसंग में रासो की घटनाओं भीमदेव द्वारा सोमेश्वर की हत्या और पृथ्वीराज द्वारा भीमदेव की पराजय और भीमदेव की हत्या को काल्पनिक मानते है। उनका तर्क हे कि इस समय आबू पर धारावर्ष परमार का शासन था और उसकी इच्छिनी नामक कोई पुत्री नहीं थी। ’पृथ्वीराज रासो’ के चाचा कान्हा ने भीमदेव के चाचा सारंगदेव के सात पुत्रों को मार दिया था। इस पर भीमदेव ने अजमेर पर आक्रमण कर दिया। उसने नागौर जीत लिया और एक युद्ध में सोमेश्वर को मार डाला।
पृथ्वीराज (Samrat Prithviraj Chauhan) ने अपनी पिता की हत्या का बदला लेने के लिए गुजरात पर आक्रमण किया और भीमदेव को युद्ध में परास्त कर मार डाला तथा नागौर पर भी पुनः अधिकार कर लिया। परन्तु रासो की यह घटना सही नहीं है क्योंकि भीमदेव द्वितीय के सिंहासन पर बैठने से पूर्व ही सोमेश्वर की मृत्यु हो चुकी थी।
शिलालेखों से पता चलता है कि भीमदेव 1239 ई. तक शासन कर रहा था। जबकि पृथ्वीराज चौहान 1192 ई. में गौरी के हाथों मारा जा चुका था। वस्तुतः चौहानों और चालुक्यों के मध्य संघर्ष का मुख्य कारण दोनों राजवंशों की विस्तारवादी नीति थी। चालुक्य का राज्य नाडौल तथा आबू तक फैला हुआ था। नाडौल के चौहान और आबू के परमार गुजरात राज्य के कदर सामन्त थे। दूसरी तरफ पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाएँ भी नाडौल तथा आबू तक जा पहुँची थी। गुजरात के चालुक्य अजमेर के चौहानों को भी अपनी अधीनता में लाने को उत्सुकता थे। जबकि पृथ्वीराज अपनी स्वतंत्र सत्ता का विकास करना चाहता था। ऐसी स्थिति में दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष होना स्वाभाविक ही था।
साहित्यिक रचनाओं और शिलालेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 1184 ई. के आस-पास दोनों पक्षों ने अनिर्णायक युद्ध लङ गया। 1187 ई. के आस-पास दोनों के मध्य मैत्री-सम्बन्ध स्थापित हो गये।
गहङवालों से संघर्ष
परम्पराओं के अनुसार पृथ्वीराज चौहान का कन्नौज के गहङवाल नरेश जयचन्द के साथ भी युद्ध हुआ, परन्तु यह युद्ध क्युँ, कब और किन कारणों से हुआ इसका स्पष्ट उतर देना संभव नहीं है।
’पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार दिल्ली के राजा आनंदपाल की मृत्यु के बाद उसका नाती पृथ्वीराज द्वितीय उसका उत्तराधिकारी बना उसका समकालीन शासक जयचन्द भी अधिक शक्तिशाली था। उसने अनेक युद्ध में विजयश्री प्राप्त की एवं राजसूर्य यज्ञ का आयोजन किया।
इसी अवसर पर उसने अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर की भी घोषणा की इसमें भाग लेने के लिए अनेक राजाओं को आमंत्रित किया गया। पृथ्वीराज को अपमानित करने कि दृष्टि से उसे निमंत्रित नहीं किया गया और उसकी मूर्ति बनाकर द्वारपाल के स्थान पर रख दी गयी संयोििगता पहले से ही पृथ्वीराज से विवाह करना चाहती थी। पृथ्वीराज अपने चुने हुये सामन्तों एवं सैनिकों के साथ छिपकर घटना स्थल पर जा पहुँचा। जो ही संयोगिता ने पृथ्वीराज के गले में वरमाला डाली। पृथ्वीराज किसी युक्ति से संयोगिता को उठाकर ले गया कन्नौज कि सेना ने उन दोनों को पकङने का अथक प्रयास किया परन्तु वे सकुशत्व अजमेर पहुँच गये वहाँ उन्होंने विवाह किया।
अधिकांश विद्वानों ने संयोगिता कि कहानी को अविश्वसनीय माना है। शिलालेखों से विधित होता है कि 1164 ई. से पूर्व विग्रहराज तृतीय ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया था इसलिए रासो कि यह बात असत्य है। कि दिल्ली पर आनंदपाल की मृत्यु के बाद पृथ्वीराज उसका उत्तराधिकारी बना।
डाॅ. ओझा और डाॅ. त्रिपाठी आदि विद्वान पृथ्वीराज और जयचन्द की परस्पर लङाई और संयोगिता स्वयंवर के काल्पनिक माना है। उनका तर्क है कि पृथ्वीराज के युग में राजसूर्य युद्ध व स्वयंवर प्रथा समाप्त हो चुकी थी।
इसके विपरीत डाॅ. दशरथ शर्मा ने संयोगिता प्रकरण कि ऐतिहासिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया है। वे लिखते है कि जो राजकुमारी रासो की प्रधान नायिका है जिसके विषय में अबुल फजल को प्राप्त ज्ञान था।
जिसकी रसमेग कथा ’चाहमान वंशचरित्र’ एवं चाहमान वंश के इतिहासकार चन्द्रशेखर के ’सुरजनचरित्र’ में स्थान प्राप्त कर चुकी है। जिससे 16 वीं सदी और इसके पूर्व भी पृथ्वीराज के वंशज भी अपनी पूर्वज मानते है।
जिसका सामान्यत निर्देश ’पृथ्वीराज विजय’ व महाकाव्य में भी मिलता है। जिसके पिता जयचन्द एवं पृथ्वीराज का वैमनस्य इतिहास अनुमोदित व तत्कालिक राजनीतिक स्थिति के अनुकूल है।
जिसकी अपहरण कथा अभूतपूर्व एवं असंगत नहीं। जिसका रासो स्थित भाग प्राप्त प्राचीन भाषा से निबंध है। जिसकी सत्ता का निराकरण ’हम्मीर महाकाव्य’ और ’रम्भा मंजरी’ के मौन के विरूद्ध सब युक्तियां हेदबा आभास मात्र है। अतः कान्तिमयी संयोगिता को हम पृथ्वीराज का परम प्रियसी रानी माने दोष ही क्या है। इसी प्रकार डाॅ. गोपीनाथ शर्मा का मत है कि परम्परा से मान्यता प्राप्त इस घटना से संदेह करना ठीक नहीं। सदियों से प्रचलित इस कथा में विश्वास का अविरड शृंखला उसकी सत्यता का प्रमाण है।
फिर भी संयोगिता प्रकरण के संदर्भ में ’पृथ्वीराज रासो’ का यह कथन कि जयचन्द ने पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए मोहम्मद गौरी को बुलाया था। विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता तो ऐसा होता तो मुस्लिम इतिहासकार इसका उल्लेख अवश्य करते वास्तविकता तो यह थी कि पंजाब गौरी का अधिकार हो जाने के बाद मुस्लिम अधिकृत प्रदेशों कि सीमाएँ चौहान राज्य से जा मिली थी।
दोनों पक्षों के मध्य संघर्ष का कोई षड्यंत्र नहीं था। इसी प्रकार पृथ्वीराज और जयचन्द का संघर्ष भी दोनों की विस्तारवादी नीति का परिणाम था। दिल्ली और उसके आस-पास के प्रदेश के स्वामीत्व को लेकर चौहानों व गहङवालों में जो संघर्ष शुरू हुआ। वह लम्बे समय तक चलता रहा। जयचन्द दिल्ली प्रदेश को हस्तगत करना चाहता था और पृथ्वीराज इसे अपने अधिकार में बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील था। अतः दोनों के मध्य संघर्ष होना स्वाभाविक था। पृथ्वीराज की प्रारंभिक सफलताओं ने जयचन्द की ईर्ष्या को बढ़ाने का काम किया और अब जयचन्द के लिए पृथ्वीराज की बढ़ती हुई शक्ति को रोकना आवश्यक हो गया।
फिर भी ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया है जिससे यह सिद्ध किया जा सकी कि उत्तर भारत के इन दो शक्तिशाली शासकों में प्रत्यक्ष रूप से युद्ध हुआ हो।
मुसलमानों से संघर्ष
तबकाते-नशिरी के अनुसार, ’’1173 में मोहम्मद गौरी को गजनी का गवर्नर नियुक्त किया गया। इसके दो वर्ष बाद ही उसने भारत में प्रथम अभियान किया। उसने बिना किसी प्रतिरोध के मुल्तान पर अधिकार कर लिया। उच्च के राजपूत शासकों को षड्यंत्र द्वारा मारकर भी इस प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया। इन प्रारंभिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर 1178 ई. में उसने गुजरात पर आक्रमण किया। परन्तु आबू के निकट गुजरात के चालुक्यों ने इसे बुरी तरह परास्त किया। परन्तु आबू के निकट गुजरात के चालुक्यों ने इसे बुरी तरह परास्त किया। परन्तु इस पराजय से गौरी हताश होने वाला व्यक्ति नहीं था।
अब उसने पंजाब को जीतने का निश्चय किया। 1186 ई. तक वह पंजाब को अधिकृत करने में सफल रहा। पंजाब विजय से पूर्व गौरी सम्पूर्ण सिंध प्रान्त को जीत चुका था। गौरी की विजयों के परिणामस्वरूप भारत में उसके अधिकृत प्रदेश की सीमाएँ पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाओं से जा मिली। इससे दोनों पक्षों के मध्य समय-समय पर सीमान्त समस्याएँ तथा संघर्ष होना स्वाभाविक था। भारत के भीतरी क्षेत्रों पर अधिकार जमाने के लिए गौरी के लिए दिल्ली और अजमेर को जीतना आवश्यक था।
जबकि अपने राज्य को सुरक्षित बनाए रखने के लिए पृथ्वीराज के लिए गौरी को उत्तर-पश्चिम से खदेङना आवश्यक था। अतः दोनों में संघर्ष अवश्यंभावी हो गया। साहित्यिक रचनाओं में पृथ्वीराज व गौरी के मध्य लङे गए युद्धों की संख्या काफी बढ़ा दी गयी है। पृथ्वीराज रासो में दोनों के मध्य 21 मुठभेङों का उल्लेख है।
’हम्मीरकाव्य’ पृथ्वीराज द्वारा गौरी को 7 बार हारने की बात कही गयी है। इसी प्रकार अन्य ग्रंथों में भी अतिशयोक्तिपूर्ण संख्याएँ दी गई है। जबकि दोनों पक्षों के मध्य एक ही वर्ष के अन्तराल में दो निर्णायक युद्ध लङे गये थे।
पृथ्वीराज चौहान की लड़ाई –
तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)
पृथ्वीराज चौहान (Prithviraj Chauhan 3) और मोहम्मद गौरी का प्रथम संघर्ष 1191 में हुआ। संघर्ष का मूल कारण तत्कालीन राजनीतिक व आर्थिक स्थिति में निहित था।
गौरी एक महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह भारत में अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। मध्य एशिया की राजनीति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करना चाहता था। इसके लिए उसे विपुल धन-सम्पदा की आवश्यकता थी। यह आवश्यकता भारत में पूरी की जा सकती थी। तत्कालीन भारत की राजनीतिक स्थिति भी गौरी के अनुकूल थी। देश में केन्द्रीय सत्ता का अभाव था। अलग-अलग क्षेत्रों में स्वतंत्र राजवंशों की नीवें सुदृढ़ हो चुकी थी। इन विभिन्न राजवंशों में एकता का अभाव था।
वे एक-दूसरे को परास्त करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। गौरी को भारतीय शासकों की इन दुर्बलताओं की पूरी जानकारी थी। वह भारत में अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। परन्तु इसके लिए मार्ग की पहली बाधा पृथ्वीराज को हारना आवश्यक था। लाहौर पर अधिकार करने के बाद गौरी ने सरहिन्द (तबरहिन्द) पर भी अधिकार कर लिया।
उसने इस दुर्ग की रक्षा के लिए काजी-जियाउद्दीन को 12,000 सैनिकों के साथ नियुक्त किया। सरहिन्द के दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने पर चौहान राज्य की सुरक्षा के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया। अतः पृथ्वीराज ने अपने दिल्ली के सामन्त गोविन्दराज के साथ सरहिन्द की तरफ कूच किया। उसका ध्येय यहाँ से गौरी की सेना को खदेङ कर दुर्ग को अपने अधिकार में लेना था।
गौरी को पृथ्वीराज की गतिविधियों की जानकारी मिल गयी। उसने वापस गजनी लौटने का विचार त्याग दिया और आगे बढ़कर पृथ्वीराज से मोर्चा लेने का निश्चय किया। तदनुसार गौरी आगे बढ़ा और तराइन के ऐतिहासिक मैदान में दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने आ डटी।
युद्ध के प्रारंभ से ही चौहानों का पलङा भारी रहा। उन्होंने मुस्लिम सेना पर दोनों ओर से भयंकर आक्रमण किया। जिसेस मुस्लिम सेना में खलबली मच गई। परन्तु ऐसी स्थिति में भी गौरी हताश नहीं हुआ। वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ राजपूतों पर टूट पङा।
गौरी ने पृथ्वीराज के सामन्त दिल्ली के गोविन्दराज के ऊपर भाले का जोरदार प्रहार किया। जिससे उसके दो दाँत टूट गये। परन्तु गोविन्दराज ने साहस नहीं खोया। उसने अपनी पूरी ताकत के साथ गौरी पर कट्टारी का वार किया। जिससे गौरी बुरी तरह घायल हो गया। कुछ समय बाद ही गौरी अचेत हो गया और अपने घोङे से गिरने ही वाला था कि उसके एक स्वामीभक्त खिलजी सैनिक ने उसे देख लिया। वह कूदकर गौरी के पीछे चढ़ गया और सुल्तान को अश्व सहित सुरक्षित युद्धभूमि से बाहर ले गया।
गौरी के पलायन करते ही मुस्लिम सेना के जल्दी ही पैर उखङ गये और वह भाग खङी हुई। राजपूतों ने भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा नहीं किया जिससे वह भारी क्षति से बच गई। कुछ दिनों बाद राजपूतों ने तबरहिन्द (सरहिन्द) पर आक्रमण किया और दुर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया।
गौरी के सेनानायक काजी जियाउद्दीन को बंदी बनाकर अजमेर लाया गया। परन्तु बाद में उसे ससम्मान सहित रिहा कर दिया गया। तराइन का प्रथम युद्ध यद्यपि पृथ्वीराज की सैनिक सफलता का चरमोत्कर्ष था। तथापि इस अवसर पर उसकी नीति की अधिकांश इतिहासकार ने आलोचना की है।
युद्ध से भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा न करना एक गम्भीर भूल थी। इसी प्रकार काजी जियाउद्दीन को भेंट-उपहार देकर रिहा करना भी उचित नहीं था। क्योंकि ऐसी उदारता का मेल न तो सैनिक नियमों से था और ना मुस्लिम-युद्ध प्रणाली से। मोहम्मद गौरी के लिए तराइन का युद्ध एक महान् अपमानजनक घटना थी। वह इस पराजय को भूल नहीं सका और प्रतिशोध लेने के लिए सैनिक तैयारी में जुट गया।
तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)
सालभर की तैयारी के बाद लगभग 1,20,000 चुने हुए घुङसवारों की एक विशाल सेना के साथ मोहम्मद गौरी ने पुनः भारत में प्रवेश किया। लाहौर और मुल्तान के रास्ते वह पुनः तराइन के मैदान में आ डटा। ताजुलम आसिर ने लिखा है कि गौरी ने रुक्नुद्दीन हमजा को अपना दूत बनाकर पृथ्वीराज के पास अजमेर भेजा।
उसने दूत के माध्यम से संदेश भिजवाया कि ’’वह (पृथ्वीराज) इस्लाम स्वीकार करके उसकी (गौरी) अधीनता स्वीकार कर ले। पृथ्वीराज ने प्रति उत्तर में गौरी को कहला भेजा कि वह चुपचाप वापस लौट जाये अन्यथा उसे भारी हानि उठानी पङेगी। इसके बाद पृथ्वीराज ने भी अपनी विशाल सेना सहित तराइन की तरफ कूच किया। पृथ्वीराज की विशाल सेना को देखकर गौरी कुछ घबरा गया तथा उसने कुछ कूटनीति से कार्य किया।
उसने पुनः पृथ्वीराज के पास अपना दूत भेजकर कहलवाया कि ’’वह अपने बङे भाई की आज्ञा से आज्ञा लेना जरुरी है। मैं उसके पास संदेश भेज रहा हूँ वैसे मैं तो संधि में रुचि रखता हूँ।’’ इस प्रकार गौरी ने संधि-वार्ता के बहाने पृथ्वीराज को भुलावे में रखने का प्रयास किया। पृथ्वीराज ने गौरी की बातों का विश्वास कर लिया तथा सम्पूर्ण हिन्दू सेना विश्राम करने लगी। दूसरी तरफ गौरी ने अत्यधिक गोपनीयता के साथ तैयार की।
इसने 10-10 हजार अश्वरोहियों के 4 दल तैयार किये और चारों को अलग-अलग दिशाओं की ओर बिखेर चौहान सेना पर अचानक तेजी के साथ आक्रमण करने को कहा। चारों अश्वारोही दलों को रात्रि में चुपचाप आगे बढ़ना था। राजपूतों को बुलावे में रखने के लिए गौरी ने अपने पदादि सैनिकों को रातभर तम्बुओं के बाहर मसाल जलाकर जश्न मनाने को कहा।
इसके बाद गौरी अपने बचे हुए पदादि सैनिकों को लेकर काफी लम्बा चक्कर लगाकर सूर्योदय के बहुत पहले पृथ्वीराज की सेना के पिछवाङे जा पहुँचा। तब तक उसके अश्वरोही सैनिक भी चारों दिशाओं से चौहान सेना के काफी निकट आ चुके थे। सुबह होते ही गौरी के आदेशानुसार मुस्लिम सेना ने चारों तरफ से पृथ्वीराज की सेना पर आक्रमण कर दिया।
इस समय बहुत से हिन्दू सैनिक शौच आदि कार्यों से लौटे ही थे और बहुत से स्नान आदि में लगे थे। उन्हें इस समय आक्रमण का सन्देह नहीं था। अतः मुस्लिम आक्रमण के साथ ही चौहान सेना में खलबली मच गई। पृथ्वीराज ने हाथी पर सवार होकर स्थिति को सम्भालने का प्रयास किया और 3-4 घंटों के भयंकर संघर्ष के बाद वह हाथी को छोङकर घोङे पर सवार होकर शत्रु का मुकाबला करने लगा।
दिन के तीसरे पहर तक चौहान सेना चकना चूर हो गई। तभी गौरी ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ आक्रमण किया। इस अन्तिम प्रहार को चौहान सेना न झेल सकी। पृथ्वीराज ने परिस्थिति को प्रतिकूल देखकर युद्ध भूमि से पलायन करने का निश्चय किया और सिरसा की तरफ भाग गया, परन्तु दुर्भाग्य से वह पकङा गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया गया।
गोविन्दराज तथा अन्य बहुत से प्रसिद्ध सामन्त हजारों सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए।
हसन निजामी के अनुसार ’’लगभग 1 लाख हिन्दू सैनिक मारे गए।’’
तराइन का दूसरा युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। गौरी ने पृथ्वीराज को परास्त कर अपनी पिछली पराजय का बदला ले लिया। इस विजय के फलस्वरूप हाँसी, सिरसा, समाना, कोहराम, अजमेर तथा दिल्ली तक के विस्तरित क्षेत्र पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।
पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने मुसलमानों से लोहा लेकर चौहान शक्ति की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने का प्रयास अवश्य किया। परन्तु उसे सफलता नहीं मिली।
पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु – Prithviraj Chauhan ki Mrityu Kaise Hui
’पृथ्वीराज रासो’ प्रबन्ध चिन्तामणि तथा अन्य हिन्दू एवं मुस्लिम साक्ष्यों में पृथ्वीराज की जीवन लीला के अन्त के विभिन्न प्रकार के विवरण मिलते हैं। रासो के अनुसार गौरी उसे अपने साथ गजनी ले गया और वहाँ उसे अन्धा कर दिया गया, बाद में उसका राजकवि ’चन्दरबरदाई’ भी गजनी पहुँचा और उसने सुल्तान को पृथ्वीराज की शब्दभेदी बाण चलाने की कला देखने के लिए राजी कर लिया। इस अवसर पर चन्दबरदाई ने कविता के माध्यम से ऊँचे सिंहासन पर बैठे गौरी ने उस स्थिति का लक्ष्य साधकर, एक ही तीर से गोरी को मार गिराया।
’’चार बाँस चोबीस गज, अंगुल अष्ट परमाण
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुकौ चौहान।’’
इसके तत्काल बाद पृथ्वीराज और चन्दरबरदाई ने एक-दूसरे को समाप्त कर दिया। परन्तु रासो का यह विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से यहीं नहीं माना जा सकता, क्योंकि गोरी लम्बे समय तक जीवित रहा था। हम्मीर महाकाव्य, पृथ्वीराज प्रबन्ध तथा अन्य साक्ष्यों में गोरी द्वारा पृथ्वीराज को बन्दी बनाने तथा बाद में उसका वध किया जाने का विवरण मिलता हैं।
जबकि ’विरूद्धविधि विदवंश’ में उसके युद्ध भूमि में ही मारे जाने का उल्लेख हैं। हसन निजामी के अनुसार पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर रखा गया, परन्तु जब सुल्तान को पता चला कि वह उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचने में लगा हुआ हैं, तो उसे मरवा डाला।
मिन्हास के अनुसार, ’’युद्ध भूमि में भागकर जाने के बाद वह पकङा गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया गया।
डाॅ. दशरथ शर्मा और डाॅ. गोपीनाथ शर्मा दोनों का मत हैं कि सम्भवतः पृथ्वीराज को अजमेर लाया गया वहाँ उसे सुल्तान के कर्द्ध सामन्त के रूप शासन करने को कहा गया, इसी स्थिति में पृथ्वीराज ने गोरी के विरुद्ध षड्यंत्र रचा हो, जिससे क्रोधित होकर गोरी ने उसको मरवा डाला।
गोरी द्वारा जारी कि गयी मुद्राओं से भी कुछ ऐसा ही अनुमान लगाया जा सकता है इन मुद्राओं के एक ओर पृथ्वीराज का और दूसरी ओर मोहम्मद श्याम अंकित हैं। गोरी द्वारा पृथ्वीराज के पुत्र के अपने आश्रित शासक के रूप में अजमेर का सिंहासन देना भी, इसी विचार का अनुमोदन करता है।
सत्य यह है कि पृथ्वीराज के जीवन का अन्त बङा दुखपूर्ण हुआ। उसकी पराजय ने भारत के भविष्य को ही बदल दिया। अब भारत में मुस्लिम शासन की नींव इतनी मजबूत हो गयी। कि हिन्दूओं के लिए उसको उखाङना सम्भव न रहा।
सम्राट पृथ्वीराज चौहान का राजस्थान के अजमेर जिले में समाधि स्थल स्थापित किया गया है।
पृथ्वीराज का मूल्यांकन – About Prithviraj Chauhan in Hindi
पृथ्वीराज चौहान को ’अन्तिम हिन्दू सम्राट’ कहा जाता है। यह ’रायपिथोरा’ के नाम से भी प्रसिद्ध था। पृथ्वीराज चौहान शाकम्भरी के चौहानों में ही नहीं अपितु राजपूताना के राजाओं में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उसने मात्र 11 वर्ष की आयु में अपनी प्रशासनिक एवं सैनिक कुशलता के आधार पर चौहान राज्य को सुदृढ़ीकृत किया। अपनी महत्त्वकांक्षा को पूर्ण करने के लिए दिग्विजय की नीति से तुष्ट किया, न केवल वीर, साहसी एवं सैनिक प्रतिभाओं से युक्त था अपितु विद्वानों एवं कलाकारों का आश्रयदाता भी था।
’पृथ्वीराज रासो’ का लेखक चन्दरबरदाई, पृथ्वीराज विजय का लेखक जयानक, जनार्दन आशाधर, पृथ्वीभट्ट विश्वरूप, विद्यापति गौङ आदि अनेक विद्वान, कवि और साहित्यकार उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे। उसके शासनकाल में ’सरस्वती कण्ठाभरण’ नामक संस्कृत विद्यालय में 85 विषयों का अध्ययन-अध्यापन होता था। ऐसे अनेक विद्यालय मौजूद थे जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। इस प्रकार वह एक महान् विद्यानुरागी शासक था।
उसने अल्पायु नाम के दुर्ग को सुदृढ़ता प्रदान की ताकि अपनी राजधानी की शत्रुओं से रक्षा की जा सके। उसने अजमेर नगर का परिवर्धन कर अनेक मंदिरों एवं महलों का निर्माण करवाया। राजस्थान के इतिहासकार डाॅ. दशरथ शर्मा उसके गुणों के आधार पर ही उसे योग्य एवं रहस्यमयी शासक बताते हैं। वह सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान राजपूतों के इतिहास में अपनी सीमाओं के बावजूद एक योग्य एवं महत्त्वपूर्ण शासक रहा। पृथ्वीराज जिवय के लेखक जयानक के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने युद्धों के वातावरण में रहते हुए भी चौहान राज्य की प्रतिभा को साहित्य एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में पुष्ट किया।
पृथ्वीराज चौहान को अंतिम हिंदू सम्राट और राय पिथौरा कहा जाता है।
पृथ्वीराज चौहान की तलवार वजन – Prithviraj Chauhan Talwar Weight
पृथ्वीराज चौहान की तलवार की लंबाई 38 इंच है। इसका वजन 60 किलोग्राम था। यह तलवार लगभग 790 साल पुरानी धरोहर थी।
पृथ्वीराज से संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रश्न
1. पृथ्वीराज चौहान का कब हुआ था ?
उत्तर – विक्रम संवत् 1223 (1166 ई.)
2. पृथ्वीराज चौहान का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर – पाटण, गुजरात (भारत)
3. पृथ्वीराज चौहान कहां के शासक थे ?
उत्तर – अजमेर और दिल्ली के
4. पृथ्वीराज चौहान ने कितने समय तक शासन किया था ?
उत्तर – 1178-1192 ई. तक
5. पृथ्वीराज चौहान के पिता का नाम क्या था ?
उत्तर – सोमेश्वर
6. पृथ्वीराज चौहान की माता का नाम क्या था ?
उत्तर – कर्पूरदेवी
7. पृथ्वीराज चौहान की पत्नी का नाम क्या था ?
उत्तर – संयोगिता
8. पृथ्वीराज चौहान किस जाति के थे ?
उत्तर – हिंदू राजपूत
9. पृथ्वीराज के गौरी के साथ कितने युद्ध हुए थे ?
उत्तर – 17 बार युद्ध किये थे।
10. तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ था ?
उत्तर – 1191 ई. में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच
11. तराइन का द्वितीय युद्ध कब और किसके बीच हुआ था ?
उत्तर – 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच
12. पृथ्वीराज चौहान के घोङे का नाम क्या था ?
उत्तर – नत्यरंभा
13. पृथ्वीराज की कितनी पत्नियां थी ?
उत्तर – 17 पत्नियां
14. पृथ्वीराज चौहान के बेटे का नाम क्या था ?
उत्तर – गोविंद चौहान
15. पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को कैसे मारा था ?
उत्तर – शब्दभेदी बाण द्वारा
16. पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु कब और कहाँ हुई ?
उत्तर – 1192 ईस्वी में अजमेर में
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